Saturday 23 April 2022

ना पुरुष नर,ना स्त्री नारी -1

  ना पुरुष नर,ना स्त्री नारी

ना पुरुष नर का नाम है, ना स्त्री नारी का। हमारे शास्त्र भी आज इनको पर्यायवाची कहने लगे हैं तब हम कैसे शास्त्रों के मन्तव्य को समझ पाएंगे सृष्टि में दो ही तत्व है- पदार्थ और उर्जा तीसरा कुछ है ही नहीं जो कुछ भी हमें चारों ओर दिखाई पड़ रहा है, इन्हीं दो तत्वों का भिन्न- भिन्न रूप है इनमें से ब्रह्मा कुछ नहीं करता, मात्र साक्षी भाव है ईश्वर और जीव दोनों के केंद्र में यही ब्रह्मा है- आत्मा रूप है माया ऊर्जा का नाम है वहां आकाश है, नाद है, प्राण है, स्पंदन है, गति है सृष्टि निर्माण में सब मिलकर आगे बढ़ते हैं माया ही परमेष्ठी लोक में भृगु - अंगिरा तत्वों की जनक बनती है सृष्टि के विस्तार में यही सोम और अग्नि का रूप लेते हैं- अक्षर सृष्टि में सृष्टि भी आगे से आगे सूक्ष्म से स्थूल होती जाती है सृष्टि का यह विस्तार ब्रम्हा का विवर्त कहलाता है परिवर्तनशील परिणाम को विवर्त कहलाता हैं पानी का बर्फ बना, फिर पानी बन सकता है वाष्प बनी, फिर पानी बन सकता है यह विवर्त है दही फिर से दूध नहीं बन सकता यह परिवर्तन स्थाई होता है ब्रह्मा की सृष्टि युगल रूप में आगे बढ़ती है केंद्र में ब्रह्म और माया रहते हैं दिखाई अग्नि और सोम का मिश्रित रूप पड़ता है


अकेला ना अग्नि रह सकता है ना ही सोम।चूंकि सृष्टि में सात लोक हैं- भू -भुव:-स्व:- मह:- जन्:- तप:- और सत्यम, अंतः अग्नि-सोम के भी इसी के अनुरूप भिन्न-भिन्न स्वरूप रहते हैं पृथ्वी तक आते-आते सारे स्वरूप स्पष्ट एवं स्थूल हो जाते हैं इनमें अग्नि-सोम का स्वरूप घन रूप होता है सारे स्वरूप अग्नि रूप होते हैं सोम आहूत होता रहता है, अग्नि भक्षण करता जाता है अग्नि और सोम अक्षर सृस्टी कि कलाए हैं इसकी अन्य कलाएं- ब्रह्मा, विष्णु और इंद्र सदा अव्यय पुरुष की कलाओं (आनंद, विज्ञान, मन प्राण और वाक) के साथ जुड़े रहती है ये आठों कलाएं मिलकर अग्नि - सोम की सृष्टि का निर्माण करती है इसके आगे शर सृष्टि में यह रूप बदलकर अन्न और आनंद( अग्नि) कहलाते हैं हमारा विकास यही से स्थूल रूप लेता है


जिन दो तत्वों को हम पदार्थ और उर्जा कह रहे हैं, उनका भी स्वरूप इसी क्रम से बदलता जाता है उर्जा (माया) की सहायता से ही सूक्ष्म पदार्थ अव्यय, अक्षर ,क्षर,पशु आदि रूप ग्रहण कर रहा है वेद की भाषा में ऊर्जा को माया रूप कहां है अंग्रेजी में इसी को एनर्जी कह सकते हैं माया किसी स्त्री या देवी का रूप नहीं, यह हमारी शब्दावली है यह ही पदार्थ और ऊर्जा आगे पुरुष और प्रकृति रूप लेकर सृष्टि का संचालन करते हैं पुरुष पदार्थ का केंद्र है हर स्वरूप का केंद्र है प्रकृति अथवा स्वभाव प्रकृति से आकृति भी तय होती है प्रकृति के 3 गुण होते हैं- सत, रज और तम इनका अनुपात भेद ही सृष्टि का स्वरूप है


 अग्नि ताप धर्मा है विखंडन करता है तोड़ता है गतिमान है फैलता जाता है सोम शीत धर्मा है जोड़ता है, संकुचन के कारण इसकी स्वयं की कोई गति नहीं है अग्नि में जब सोम आहूत होता है, तब अग्नि शांत होता है तृप्त होता है सोम का अस्तित्व नहीं रह पाता अग्नि ही शेष दिखाई पड़ता है इसी अग्नि के स्वरूप को बनाए रखने के लिए निरंतर सोम की आवश्यकता पड़ती है सोम की मात्रा यदि आवश्यकता से अधिक हो जाए तो अग्नि मंद पड़ जाता है वर्षा ऋतु में वर्षा के कारण सोम की मात्रा बढ़ जाती है अग्नि शिथिल हो जाता है सृष्टि की गति शिथिल हो जाती है हम कहते हैं कि देव सो गए प्राणों को ही देव कहा जाता है अग्नि प्राणों का मंद हो जाना ही उसका शयन काल है जिस दिन हम अधिक खाना खा लेते हैं, हमें यह अनुभव हो जाता है जठराग्नि मंद पड़ जाती है दिन भर कार्य करने से भी शाम तक थकान का अनुभव जाता है सोम खर्च हो जाता है शाम को खाना खाने से और रात्रि को अवकाश से प्राप्त सोम से अग्नि फिर जागृत एवं क्रियाशील हो जाता है थकान उतर जाती है


इस पूरे सृष्टि के काम-काज में जो तथ्य दिखाई देता है, वह यह है कि अग्नि ग्रहण करने वाला तत्व है सोम समर्पित भाव है निर्माण के लिए वह अग्नि के साथ जुड़ता है उसके अस्तित्व की बलि चढ़कर ही निर्माण होता है अग्नि सदा सोम की प्रतीक्षा करता है उसके बिना अग्नि टिक नहीं सकता ।अग्नि स्थिर भाव में रहता है सोम बदल सकता है, अपने स्वरूप को सारा स्वरूप निर्माण सोम पर निर्भर करता है स्वरूप में अग्नि रूपा है इसलिए नित्य आकाश के सोम से पोषित होती रहती है


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